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गन्दी, राजनीति या हम?

साधना के पथ पर
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राजनीति……..कहीं वोट की तो कही नोट की, कहीं जाति की तो कहीं धर्म की, कहीं क्षेत्र की तो कहीं देश की, कहीं गाँव की तो कहीं शहर की, कहीं अपनो की तो कहीं परायों की……पर कहीं न कहीं राजनीति तो हो रही है. कहने का तात्पर्य, राजनीति शब्द का क्षेत्र जितना व्यापक है उतना ही संकुचित भी. तभी तो एक बाप अपने बेटे से निःसंकोच कहता है, ” बेटा, अपने बाप से ही राजनीति कर रहे हो?” प्रदेश हो या देश , गाँव हो या शहर, घर हो या कार्यालय, चाय की दुकान हो या पान की, बस स्टैंड हो या रेलवे प्लेटफार्म, प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रोनिक मीडिया, खबरीलाल हो या वेब की दुनिया……इस समय चारों तरफ एक ही शब्द का जिक्र है…… राजनीति. यहाँ सुनने, देखने, और महसूस करने के साथ-साथ उठते-बैठते, जागते-सोते, यहाँ तक कि खाने और पीने में भी राजनीति. ऊपर से इस समय भारत के कुछ राज्यों में चल रहीं विधान सभा चुनाव की राजनीति…..भाई ये तो हद ही हो गयी. कोई राजनीति तो कोई राजनेताओं पर कीचड़ उछालने से बाज नहीं आता..आखिर क्यों न हो भाई…हम सभी दूध के धुले जो है.परन्तु हमारी सामाजिक व्यवस्था में जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, धर्मवाद जैसा जहर लहूँ बनकर दौड़ रहा है. उस पर किसी को नज़र नहीं जाती. परन्तु कोई इसी लहूँ से ब्लड बैंक खड़ा कर रहा है तो फिर तकलीफ क्यों? जबतक इन सामाजिक बुराइयों से हम अपनी झोपड़ियाँ सजाते रहें तब तक कोई सुगबुगाहट नहीं हुई. पर कोई इससे महल खड़ा कर रहा है तो फिर तकलीफ क्यों? जब हम सांप की प्रकृति पाले हुए हैं तो फिर अज़गर से घृणा क्यों? गुस्ताखी के लिए माफ़ी चाहूँगा. इसके लिए हमारे कुछ लेखक बन्धु भी कम जिम्मेदार नहीं है, उनके द्वारा दिया गया अलगाववादी व्यक्तव्य, इन सामाजिक बुराइयों के लिए रक्त में आक्सीजन का काम कर रहा है. जो हमारी सामाजिक व्यवस्था में इन बुराइयों के सुचारू रूप से परिसंचरण के लिए उतरदायी है. और हम आम जन की तो बात ही निराली है……जाति, क्षेत्र, भाषा इत्यादि के नाम पर अपना स्वार्थ सिद्ध करते आते है. परन्तु यहीं जब हमारे स्वार्थ के आगे दीवार बनकर खड़ा हो जाता है तो हमें घुटन होने लगती है. फिर क्या कभी किसी व्यक्ति को तो कभी व्यवस्था को दोषी ठहराने से बाज नहीं आते.
जाति, क्षेत्र, भाषा इत्यादि, जब तक सामाजिक व्यवस्था का अंग था तब तक सब ठीक था. परन्तु अब यह राजनीतिक व्यवस्था का अंग होता जा रहा है तो भाई , यह उठक-बैठक क्यों? राजनीति न ही कोई आकाश से उतरी हुई कोई व्यवस्था है और न ही राजनेता आकाश से उतरे कोई राजदूत. यह राजनीति भी अपनी है और राजनेता भी हममे से कोई एक तो फिर यह दोषारोपण क्यों? मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि जब हम धतूरे का पेड़ लगा रहें है तो गुलाब के फूल की उम्मीद क्यों? यदि हम सचमुच भारतीय राजनीति को लेकर गंभीर है तो हमें अपनी यह गन्दी मानसिकता को बदलना होगा. मुझे किसी पर कीचड़ उछालने की आदत नहीं. परन्तु एक बात आप लीगों से जरुर कहना चाहूँगा, “एक माली को फूलों और पत्तों को कोसने से बेहतर होगा कि जड़ों को सहीं ढंग से सींचना सीख ले.” गन्दी राजनीति का अलाप लगाना बंद करियें तथा आँख, कान और मुंह के साथ-साथ अपनी कलम को भी भी बंद करिए. चैन से चादर तानकर अपने घरों में सोइयें और हमें भी सोने दीजिये. वैसे मैं एक लम्बी नींद लेने जा रहा हूँ और यह मेरी नींद तब टूटेगी जब मेरे दोस्त प्रवीन की इस मंच पर वापसी होगी. सोते-सोते एक गाना आप लोगों को सुझाता हूँ उसे तबतक सुनते रहिये जब तक की हम दो दोस्तों की वापसी नहीं हो जाती……….मेरा तो जो भी कदम है, वो तेरी राह में है; कि तू कहीं भी रहें , मेरी निगाह में है………….शुभ रात्रि.

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