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जिन्दा! मर गया

साधना के पथ पर
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जिन्दा! मर गयायकीन नही होता न. कुछ पल के लिए मुझे भी यकीन नहीं हुआ था. ऐसा लगा मानों आसमान को जमीन मिल गयी हो या फिर दो समान्तर रेखाएं कहीं दूर जाकर एक हो गयी हो. बात है परसों रविवार सुबह १० बजकर ५१ मिनट की. पिछले १५ दिनों से अँधेरे को लेकर अपना अनुभव शब्दों में व्यक्त करना चाह रहा था. वैसे ही जैसे कोई प्यासा अपनी प्यास को शब्दों में व्यक्त करना चाह रहा हो. इसका जिक्र मैं अपने मित्र संदीप झा से भी सेलफोन वार्ता में किया था. उसने कहाँ कि कोशिश करके देख लो. परन्तु समय के आभाव के कारण खुद को इसके लिए वक्त नहीं दे पा रहा था. परसों रविवार की छुट्टी थी और कुछ वक्त भी; माँ के लिए, मिसेज के लिए, अलीना के लिए और निश्चय ही कुछ खुद के लिए. अतः कागज़ और कलम की तलाश लिए बेडरूम में प्रवेश किया जहाँ मिसेज रो रही हमारी बेटी अलीना को चुप कराने में लगी हुयीं थी.अतः कागज और कलम को भूलकर वहीँ बैठ गया. तभी बेडरूम से लगे हुए बालकनी के रेलिंग से होते हुए एक आवाज आई, “राम-नाम सत्य है.”
सुबह के १० बजकर ५५ मिनट हो रहे थे. रेलिंग पर जहाँ मेरी माँ पहले से ही मौजूद थी, जाकर देखा चार व्यक्ति किसी एक को कंधे पर उठाये हुए चले जा रहे है और उनके पीछे तक़रीबन ७०-८० लोग भागे जा रहे हैं. ऐसा लग रहा था जैसे जिंदगी और मौत की घुड दौड़ लगी हो एक ऐसी दौड़ जिसमे किसी की जितने की कोई उम्मीद नहीं. एक सिरे पर जीत और दुसरे सिरे पर हार, पर क्या यह संभव है कि जीत हार में बदल जाए या हार जीत में बदल जाए? असंभव! या तो जीत होगी या फिर हार. कहीं कोई ऐसी बात तो नहीं जो इस जिंदगी और मौत से भी महत्वपूर्ण हो. खैर, इस बात से बेफिक्र था. अचानक मेरा ध्यान अपनी माता जी पर गया जो बगल में रखे मेरी तौलिया को अपने सर पर रखी हुई थी. मुझे भी जाने क्या हसीं-मजाक सूझी की, मैं उनसे बोला, “आप अपना तौलिया अपने सर पर रखिये, आप खुद को उस व्यक्ति के आत्मा से बचा लीं परन्तु यदि उस व्यक्ति की आत्मा तौलिये के सहारे मेरे सर पर सवार हो गयी फिर मैं तो गया काम से.” यह कहकर जोर-जोर से हँसने लगा. तभी निचे से किसी की आवाज आई, “जिन्दा! मर गया और आपको हसीं सूझ रही है. पर जिस बात पर मैं हँस रहा था उसे बताना मेरे लिए मुश्किल था क्योंकि मुझे पता था कि वह बात उसके समझ के बाहर है.

इससे बड़ी हास्यपद बात क्या होगी कि कोई जिन्दा हो और वह मर जाए, कोई प्रकाश हो अँधेरा हो जाए, या तो वह जिन्दा है या फिर मर गया हो, या तो प्रकाश है या फिर अँधेरा या यह दोनों एक झूठ हो और सत्य इससे अलग कुछ और. परन्तु सत्य यह भी है कि हम मृत्यु को सत्य मानकर जिंदगी को झूठ कर दिए हैं और सदियों से मृत्यु के इंतज़ार में मरे जा रहे हैं. सत्य तो यह है कि यह जीवन और मृत्यु किसी एक की दो अवस्थाएं वरना यदि यह सत्य होता तो दोनों का एक अपना अलग स्वरुप होता. ऐसे में कभी जिंदगी मौत में तब्दील नहीं होती. सत्य तो यह है कि यह बिलकुल झूठ है जैसे सुबह का शाम होना झूठ है. यह तो सूरज है जिसकी रोशनी धरती के जिस-जिस कोने पर पड़ेगी वहाँ सुबह और ठीक उसके विपरीत शाम होती है. परन्तु इन दोनों के बोच में ऐसी कई अवस्थाएं भी होती है जो सुबह से शाम की ओर अग्रसर होती है और फिर शाम से सुबह की ओर. आइये इसे एक और उदहारण से समझते हैं. जीवन और मृत्यु को यदि एक तराजू के दो पलरा मान लिया जाय तो हम देखते हैं कि कभी कोई पलारा भारी पड़ता है तो कभी कोई. दोनों में ही विरोधाभाष है और जहाँ नहीं है दोनों बराबर हो जाते हैं वहाँ विरोधाभास ख़त्म हो जाता है. परन्तु कभी भी एक पलरा दुसरे में तब्दील नहीं होता. यह जीवन-मृत्यु भी किसी तराजू के दो पलरे है जो कभी एक हो ही नहीं सकते, कभी एक दूसरा में तब्दील हो ही नहीं सकता और यदि हो जाए तो एक ख़त्म हो जाएगा. जैसे ही एक ख़त्म हुआ कि दुसरे को भी ख़त्म होना ही है. या नदी के दो किनारे जो कभी एक हो ही नहीं सकते. कभी भी कहीं भी मिल नहीं सकते. यह तो कोई मुसाफिर है जो इस पर से उस पार जाने का साक्षी होता है. यह सफ़र कुछ ऐसा है जैसे कोई यात्री एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन तक जाने के लिए उतनी दुरी का टिकट कटा कर बैठ जाता है और फिर सफ़र ख़त्म होते ही, टिकट की वैलिडिटी ख़त्म. फिर एक नए सफ़र के लिए नयी वैलिडिटी.ऐसा ही कुछ जीवन-मृत्यु है……एक खूबसूरत झूठ!……….सत्य तो कोई और है जो इससे होकर गुजरता है…. …………
बस यूँ समझ लीजिये परसो जिन भाई का राम-नाम सत्य हो गया. उनका सफ़र वही ख़त्म हो गया. फिर एक नए सफ़र के लिए उन्हें एक नयी वैलिडिटी की जरूरत पड़ेगी. भैया, अब उनके लिए आप लोग इस स्टेशन पर क्यों उतर गए? आपका स्टेशन अभी आना बाकी है. अतः आप सभी अपनी-अपनी बोगी में जाकर अपना स्थान ग्रहण करें. ट्रेन को हरी झंडी हो गयी है ……….आप सभी की यात्रा मंगलमय हो!

(चित्र गूगल इमेज साभार)

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